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झारखंड का आदिवासी समाज और भूमि का उत्तराधिकार!

यूं तो झारखंड के आदिवासी समाज में औरतों की स्थिति, अन्य समाज की स्त्रियो की तुलना में पुरुष से संपत्ति के अधिकार की हो, तो ये उन सारी महिलाओं से पिछडी है जो अन्य क्षेत्रों में इनका अनुकरण करती है। आपको यह जानकर विस्मय होगा कि राज्य के जनजातीय समाज में महिलाओं को अचल संपत्ति में कोई वंशानुक्रम का अधिकार नहीं दिया जाता है। वर्तमान युग में, जब लैंगिक समानता का विषय विश्व भर में जोरों से चर्चा में है, यह अति अफसोसनाक है कि प्रदेश की आदिवासी महिलाओं को प्रथागत कानून के तहत भूमि के उत्तराधिकार से वंचित रखा गया है।

छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 कि धारा 7 एवं 8 में इस बात का उल्लेख है कि आदिवासी समाज में जमीन का उत्तराधिकार सिर्फ पुरुष वंश में ही किया जा सकता है। अर्थात, समाज की औरतों को इसका कतई अधिकार नहीं। हालांकि अधिनियम कि एक अन्य धारा पर गौर किया जाय तो यह मालूम होता  है कि यादि आदिवासी समाज में भूमि का हस्तांतरण, भेंट अथवा विनिमय किया जाना हो तो इसके लिए वंशानुगत पुरूष अथवा ‘अन्य ‘ योग्य है। जहां एक तरफ संथालपरगना के इलाके में ‘तानसेन जोम’ की परंपरा हैं, वही दूसरी तरफ संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम में यह स्पष्ट रूप से अंकित है जमीन के मामले में स्त्रियों को कोई उत्तराधिकार नहीं है। क्या यह विरोधाभास परंपरागत अधिकारों की मुखालफत का नमूना नहीं है?

यह बात बिल्कुल सत्य है कि आदिवासी समाज में जमीन का दर्जा संपत्ति से कहीं ऊपर है। यह विषय इनकी संपूर्ण संस्कृति से जुड़ा हुआ है। अतः समाज ऐसा कोई भी नियम बनाने के विरुद्ध है जिससे उनकी भूमि छिन जाने का संकट हो। मगर जब पूरा समाज ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हो तो उसे संपूर्ण रूप से अक्षुण्ण रखने की बात की जानी चाहिए। महिलाओं के अधिकारियों की बात इससे परे नहीं हो सकती क्योंकि वे भी इसी समाज का अभिन्न अंग है।

असल में आदिवासी महिलाओं के जमीन में उत्तराधिकार की चर्चा व्यापक स्तर पर तब शुरू हुई जब मधु किश्वर एवं अन्य बनाम बिहार सरकार तथा जूलियाना लड़का एवं अन्य बनाम बिहार सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 17 अप्रैल,1996 को महिलाओं को संपत्ति में अधिकार देने के बाबत अपना निर्णय सुनाया। अदालत ने कहा था कि आदिवासी समाज में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं है। प्रथागत कानून के तहत उन्हें पिता अथवा पति के जमीन का उत्तराधिकार नहीं बनाया जाता। भारतीय संविधान के तहत प्रत्येक नागरिक को स्वच्छंदतावाद और समानता का अधिकार प्रदान करने वाले धारा 14,15 एवं 21 के भी इन्हें वंचित रखा गया है। इसपर क्षेत्र के आदिवासियों ने तीव्र प्रतिरोध जताया। स्त्रियों को भूमि का अधिकार दिये जाने के मसले पर आए इस अदालती फैसले का यह कह कर विरोध प्रकट किया गया कि आदिवासियों में जमीन खरीद-फरोख्त की नहीं है।

झारखंड के अधिकांश आदिवासी घरों में महिलाएं ही घर की आर्थिक जिम्मेवारी निभाती हैं। खेत में पुरुष के समक्ष काम करने से लेकर गृहस्थी चलाने के हर महत्वपूर्ण फैसले में उनकी एक अहम भागीदारी होती है। बावजूद इन उपलब्धियों के औरतों को भूमि के उत्तराधिकारी बनने से क्यों वंचित रखा जाय? झारखंड आदोलन के महानायक रामदयाल मुंडा ने भी कहा था कि सैद्धांतिक रूप से जमीन किसी एक की नहीं हो सकती। प्रथा और परंपरा ने इसे पुरुषों का मान लिया और महिलाओं को इससे पृथक कर दिया अन्यथा भूमि तो स्त्री और पुरुष दोनों की है। बदलते समय के साथ जमीन पर मालिकाना हक कायम होता जा रहा है। ऐसे में पति-पत्नी का नाम संयुक्त रुप से जमीन के दस्तावेजो में दर्ज किया जाना चाहिए, इसमें औरतों की न सिर्फ सामाजिक उन्नति होगी बल्कि उनको आथिक आत्मनिर्भरता का अनुभव होगा। झारखंड में विधवा और अकेली महिलाओं को डायन करार कर हत्या किए जाने के मामले में भी ऐसे कदम से कमी आएगी।
-भावना भारती


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