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ग्लोबल डिस्मेंटल सत्र

नोटग्लोबल डिस्मेंटल हिंदुत्व के प्रत्युत्तर में इंडोलॉजी फाउंडेशन द्वारा दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब में बृहद प्रेस कॉन्फ्रेंस  का आयोजन किया गया जिसमें ग्लोबल डिस्मेंटल सत्र के दौरान उठाए गए प्रश्नों के बिंदुवार उत्तर दिए गए।


इस सत्र में प्रयुक्त डिस्मेंटल शब्द पर आक्षेप करते हुए फाउंडेशन के इंडोलाजिस्ट श्री ललित और प्रवीण ने कहा कि विमर्श या परिचर्चा की जगह शिक्षा संस्थानों के कैंपस में डिस्मेंटल की तरह के शब्द का प्रयोग वैचारिक पूर्वाग्रह युक्त व्यग्रता की मनःस्थिति को व्यक्त करता है। उन्होंने कहा कि इस मनोवृति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 1848 के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में प्रयुक्त "वायलेंट ओवरथ्रो तथा एबोलिश" जैसे शब्दों के चयन में देखी जा सकती है, जब मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के स्थान पर सत्ता परिवर्तन का लक्ष्य सामने रखा था। जिसके साथ ही उन्होंने आयोजकों द्वारा हिंदुत्व में हिंदू या हिंदुइस्म जैसे दो शब्दों के सहारे दी गयी सफाई को भी इस आयोजक समूह द्वारा पूर्व मे संस्कृत को स्कूल पाठ्यक्रम से निकाल कर लेटिन, जर्मन एवं फ़्रेंच शामिल करने की मुहिम चलाने तथा सन में स्कूल पाठ्यक्रम से संपूर्ण वैदिक इतिहास डिलीट करने का प्रतिवेदन देने जैसे क्रियाकलापों के कारण खारिज कर दिया।

मातृ बनाम पितृसत्तात्मक समाज के प्रश्न को अमान्य करते हुए कहा गया कि भारत की विराट संस्कृति ऐसे अनेकानेक अवसरों से गुजर चुकी है। उन्होंने बताया कि उपनिषद काल खंड में गुरु शिष्य परंपरा की 60 पीढ़ियां मातृ सत्तात्मक समाज का प्रतिबिंब करती हैं जिनके नाम बृहदारण्यक उपनिषद की सूची में उपलब्ध है, इसी तरह सातवाहन वंश की राज परंपरा में भी शासन शक्ति का केंद्र मां के हाथों में निहित होने का पता लगता है।

सेकुलरवाद के प्रश्न पर उन्होंने कहा कि धर्म शब्द के अर्थ में ही सब को एक साथ लेकर रहने की भावना व्यक्त हो रही है जिसका प्रथम उद्घोष अथर्ववेद भूमि सूक्त में होता है,  जहां भारत के बहुभाषवादी समाज में विभिन्न मतावलंबियों के मध्य सामाजिक सद्भाव का चित्रण किया गया है।

उन्होंने नेशनलिज्म की अवधारणा के 19वीं सदी में यूरोप से अतीत होने को अमान्य करते हुए कहा कि भारत में तो राष्ट्रीय भावना के पुरातात्विक प्रमाण 3000 वर्ष से मिल रहे हैं, जिनकी पुष्टि धार्मिक ग्रंथो से प्राप्त उद्धरणों से होती है। पांडिचेरी समीपवर्ती एरिकमेडू तथा केरल के पतनम जैसे स्थलों के उत्खनन के दौरान अफगानिस्तान में मिलने वाले लेपिस लजूली तथा इसी तरह नर्मदा के उत्तर में मिलने वाले कार्नेलियन बीड के मिलने से दक्षिण भारत उत्तर भारत के बीच में संपर्क के 3000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है, क्योंकि इस इस दौरान उत्खनन में किसी नरसंहार के पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिले हैं, परस्पर सामाजिक सद्भाव की स्थिति ज्ञात होती है।




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