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अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण!

आत्मनिर्भर भारत का विचार भारतीय लोकाचार और जन-सामान्य से सीधे जुडा हुआ है। अंग्रेजी को हराने के लिए महात्मा गांधी ने स्वदेशी के विचार का इस्तेमाल किया था। उनके लिए स्वदेशी आत्मनिर्भर की ही अभिव्यक्ति थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 12 मई के संबोधन को गांधी के विचार को अपनाने और सुधार के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें स्थानीयता को बढ़ावा देने का संकल्प है। यह विचार भारत को आर्थिक रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है।
विकसित देशों ने विकास के लिए दूसरे देशों के मॉडल की नकल नहीं की है। उन्होंने स्वयं ही रणनीतियां बनायी है। लेकिन हमारे नीति निर्माता विदेशी मॉडलों से अभिभूत रहे। न ही उन्हें कभी देशवासियों और उनकी उद्यमशील क्षमता पर भरोसा रहा, न ही लोकाचार व विचार प्रकिया पर उन्हें कभी यह विश्वास ही नहीं रहा कि लोगों को केन्द्र में रखकर विकास किया जा सकता है।

पिछले 70 वर्षों में नीति-निर्माताओं ने हमारे स्वदेशी उद्योगों, संसाधनो और उद्यमियों पर भरोसा ही नहीं किया। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में नीति- निर्माताओं ने विकास के रूसी मॉडल पर विश्वास किया। सार्वजनिक क्षेत्र आधारित दर्शन इस मॉडल के मूल में था। माना गया कि सार्वजनिक क्षेत्र इस देश के विकास को गति देगा और उपभोक्ता वस्तुओं से जुड़े उद्योगों के विकास में भी योगदान देगा। लेकिन उस मॉडल में  कृषि और सेवा क्षेत्र शामिल नहीं था। वर्ष 1991 में यह महसूस किया गया कि हमारी अर्थव्यवस्था जिस मॉडल पर आधारित थी, वह विफल रहा है। बढ़ते विदेशी ॠण के कारण देश मुसीबत में आ गया, विदेशी मुद्रा भंडार समाप्त हो गये थे और डिफॉल्ट का खतरा उत्पन्न हो गया था। सो, अर्थव्यवस्था को बचाने का एकमात्र वैश्वीकरण ही माना गया। अर्थव्यवस्था को बचाने का विदेशी प्रत्यक्ष निवेश व बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिये विशेषकर विकास में तेजी आयी। सच तो यह है कि 1991 के बाद जीडीपी का जो विकास हुआ, उसका कारण विलासिता की वस्तुओं का अधिक उत्पादन और सेवा क्षेत्र में तेज वृद्धि रही। जीडीपी के विकास का लाभ हालांकि कुछ लाभार्थियों तक ही सीमित रहा।
• वस्तुतः यह विकास रोजगारहीन और बेरहम था। एक तरफ अंधाधुंध रियायत देकर विदेशी पूंजी को हमारी उन कंपनियों के अधिग्रहण की छूट दी गयी, जो पहले ही अच्छा कर रही थी। वहीं दूसरी तरफ वैश्वीकरण के नाम पर चीनी मालिक के आयात की अनुमति देकर हमने अपने रोजगार को नुकसान पहुंचाने और आर्थिक असमानता बढ़ाने का काम किया। इससे विदेशी व्यापार और चालू खाते पर भुगतान शेष में घाटा असहनीय होता गया। कई स्थानीय उद्योग-धंधे चौपट हो गये, क्योंकि उदारीकरण, सम्मिलित ही नहीं थी। बेरोजगारी और गरीबी ने लोगों को सरकारी मदद पर निर्भर बना दिया। रोजगार और भोजन के अधिकार के नये मानदंड बनने लगे। लेकिन ये नीतियां लोगों द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास में योगदान देने में बाधक है। विकास को अधिक भागीदार, समावेशी और रोजगारोंन्मुखी बनाने के लिए ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम देने की बात भी हुई। मौजूदा आर्थिक व्यवस्था में यह एकमात्र समाधान बताया जाता है, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चल सकता है।

-भावना भारती

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