छात्रावस्था अवोधावस्था होती है, इसमें न बुद्धि परिष्कृत होती है और न विचार। पहले वह माता-पिता तथा गुरुजनों के दबाव से ही कर्त्तव्य पालन करना सीखता है। माता-पिता एवं गुरूजनों के निमंत्रण में रहकर नियमबद्ध रूप से जीवनयापन करना ही अनुशासन कहा जा सकता है। अनुशासन विद्यार्थी जीवन का सार है। अनुशासनहीन विद्यार्थी न तो देश का सभ्य नागरिक बन सकता है और न अपने व्यक्तिगत जीवन में हो सफल हो सकता है।
आज स्कूल या कालेज के विद्यार्थियों को अनुशासनहीनता अपनी चरम सीम पर है। आज का विद्यार्थी घर में माता-पिता का आज्ञा नहीं मानता, उनके सदुपदेशों का आदर नहीं करता, उनके बताये हुए मार्ग पर नहीं चलता। कालेज में तो अनुशासन पूरी तरह बिगड़ चुका है। कक्षा में जब मन चाहा आ बैठे और जब मन चाहा उठकर चले गये। अध्यापक के कुछ कहने पर बिना सोचे समझे जो मन में आया कह देना, परीक्षा के समय बच्चों को मनचाही नकल न करने देने पर हाथपाई को तैयार हो जाते हैं सामूहिक मेलों और उत्सवों में विद्यार्थियों को चरित्रहीनता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। रेलों में बिना टिकट सफर करने में छात्र अपना महत्व समझते हैं। देश के भावी नागरिक अगर ऐसे ही रहे, तो निश्चय ही भारत आज नहीं तो कल पतन की ओर अग्रसर होगा।
अनुशासनहीनता का पहला कारण है माता-पिता की लापरवाही। बच्चा पहले घर में शिक्षा लेता है, उसके बाद वह स्कूल या कालेज में जाता है। पहले तो प्यार के कारण माता-पिता बच्चे को कुछ कहते नहीं, बच्चे जब बड़े हो जाते हैं, तो बच्चों के डर से माता-पिता कुछ कह नहीं पाते। दूसरा कारण है दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली। इसमें नैतिक या चारित्रिक शिक्षा का कोई स्थान नहीं दिया गया है। अभी विद्यार्थियों का शारीरिक दण्ड अवैध है इसका विद्यार्थी गलत फ़ायदा उठाता है, तीसरा कारण है शिक्षा संस्थाओं का कुप्रबन्ध, जो छात्रों को अनुशासनहीन बनाता है विद्यालयों में सीमा से अधिक छात्रों की संख्या हो ने पर सही ढंग से न अध्ययन हो पाता है और न अध्यापन। विद्यालय के शिक्षकों द्वारा उसी विद्यालय के छात्रों को प्राइवेट टयूशन देने पर भी छात्रों में अनुशासनहीनता बढ़ती है। चौथा कारण यह है कि छात्रों परिक्षाओं में व्यक्तिगत ध्यान नहीं यिा जाता। पांचवां कारण यह है कि वर्तमान समय मे इंटरनेट / मोबाइल, दूरदर्शन आदि के जरिए भी अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। कम उम्र के छातओं में इंटरनेट / मोबाइल का गलत एवं अनावश्यक उपयोग दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।
छात्रों में अनुशासन को पुनः स्थापित करने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि शिक्षा व्यवस्था में नैतिक और चारित्रिक शिक्षा का भी पाठ पढ़ाया जाए। दूसरी बात यह है कि शारिरिक दण्ड का पूर्ण अधिकार अध्यापक को मिलना चाहिए। तीसरी बात यह है कि माध्यमिक शिक्षा के छात्रों के लिए सायिक शिक्षा को व्यवस्था होनी चाहिए। काम के अभाव में वह अनुशासनहीनता फैलाता है चौथी बात यह है कि प्रत्येक अभिभावक अगर जागरूक हो तो विद्यार्थियों का नया रूप हमें देखने के मिल सकता है क्योंकि कि आज के विद्यार्थी ही भविष्य में सरकारी/ बेसरकारी दफ्तरों में एवं राजनैतिक क्षेत्रों में विभिन्न पदों पर आसीन होंगे।
पहले समय में विद्यार्थी और शिक्षक के बीच बहुत अच्छा संबंध होता था वे आदर के साथ बड़ों का सम्मान करते थे लेकिन वर्तमान समान में यह रूप विकृत हो चुका है। इस विकृत रूप को सुन्दर बनाने के लिए शिक्षकों को भी स्नेह एवं प्यार से कार्य करने होंगे। शिक्षक अपने आपको सिर्फ एक कर्मचारी नहीं बल्कि एक गुरु के समान छात्रों से व्यवहार करे तो यह विकृत रूप आसानी से सुधर सकता है। जिस प्रकार साहित्य समान का दर्पण होता है उसी प्रकार विद्यार्थी समान का पौधा होता है। इस पौधे को अगर हम भली भाँतिसाँच सके तो यही पौधा विश्व का दर्पण बनेगा।
-प्रेरणा यादव
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