पुस्तक की आत्मकथा

मेरे जन्म की कहानी बड़ी विचित्र है। मैं आज जो कुछ भी हैं, मानव के कारण हैं। मानव की तपस्या, लगन तथा परिश्रम का ही फल है कि आज मैं इस रूप में आपके सामने हैं। जन्म से पूर्व में केवल सूक्ष्म विचारों और ज्ञान के रूप में थी। एक दिन मेरे स्रष्टा की तपस्या सफल हुई और मैंने भी उसकी साधना पर प्रसन्न होकर उसकी

भाषा और शब्दों को अपने भीतर समा लिया। मानव अपनी उस रचना पर स्वयं आत्म-विभोर हो उठा था। आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व जब मेरा जन्म हुआ था, तब मानव के पास आज जैसे उन्नत साधन नहीं थे। उस समय तो वह आज की भाँति लिखना भी नहीं जानता था। वह केवल सुंदर-सुंदर चित्रों तथा तस्वीरों के रूप में ही मेरा निर्माण किया करता था।

आज भी मैं जब शिलाओं, गुफाओं तथा स्तंभों पर अंकित अपने पुराने रूप को देखती हूँ. तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कि मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई। जब मानव ने लेखन कला का विकास किया, तो मुझ पर भी उसका प्रभाव पड़ा, अब मैं ताम्रपत्रों या भोज-पत्रों पर लिखी जाने लगी। आज भी अनेक संग्रहालयों में मेरा वह पुराना स्वरूप देखा जा सकता है।

इसके बाद मैंने प्रवेश किया-कागज के युग में सबसे पहले कागज पर लिखने का सौभाग्य चीनियों को प्राप्त हुआ। चीनवालों ने हो कागज का निर्माण किया तथा वहीं से यह ज्ञान अन्य देशों में गया। कागज निर्माण के साथ-साथ मुद्रण कला का भी आविष्कार हो गया। वर्षों का काम कुछ ही दिनों में पूर्ण होने लगा। मेरा प्राचीन स्वरूप बिलकुल ही बदल गया। मैं आधुनिका बनकर पाठकों के सामने आई। आज मेरा स्वरूप अत्यंत आकर्षक है।

पुस्तक के रूप में ढलने के लिए मैंने अनेक कष्टों को सहन किया है। मुद्रण-मशीन में मुझे भयानक यातनाएँ सहनी पड़ीं। तत्पश्चात् जिल्दसाज़ ने मेरे शरीर को सँवारा, उसके बाद मैं इतने आकर्षक रूप में आपके सामने हूँ। इतनी काट-छाँट, सिलाई, छपाई तथा जिल्द बाँध जाने के कष्टों को सहन करने का परिणाम अच्छा ही हुआ है। आज मैं ज्ञान-विज्ञान का भंडार मानी जाती हूँ। अनेक प्रकार के विचार मुझमें संकलित है। मेरे बिना संसार की कल्पना करना भी मुश्किल है। यदि मैं न रहूँ तो ज्ञान-विज्ञान और मनोरंजन की दुनिया सूनी हो जाए। मुझे हर्ष है कि आजकल कंप्यूटर के आने से मेरा स्वरूप और भी सुंदर हो गया है तथा दिन-प्रतिदिन निखरता जा रहा है।

- प्रेरणा यादव


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